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| Aus dem Programm <i>Schubert-Abend</i> (1979).
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| : Auf Schritt und Tritt
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| : schaut er sich um.
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| : Spricht man ihn an
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| : so stellt er sich dumm.
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| : Er fragt keinen Menschen
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| : sieht niemand an
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| : und starrt von Zeit zu Zeit
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| : in einen Strassenplan.
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| : Er hält die Hand
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| : verkrampft in der Tasche
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| : und geht einher
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| : wie in Sack und Asche
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| : ein Herz voll Angst
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| : ein Gesicht aus Stein
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| : zwei Lippen aus Kreide -
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| : wer mag das sein?
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| :
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| : Ein Schweizer im Ausland
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| : von Elend erfüllt
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| : ein Schweizer im Ausland
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| : ein trauriges Bild!
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| :
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| : Ihm graut vor dem Essen
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| : er ist überzeugt
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| : das Ausland sei
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| : schon als solches verseucht.
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| : Er misstraut jedem Brötchen
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| : wäscht jede Frucht
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| : und ist permanent
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| : vor Bazillen auf der Flucht
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| : Wasser trinkt er nicht
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| : rohe Milch auf keinen Fall
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| : die Zähne putzt er
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| : mit Agua mineral.
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| : Salat lehnt er ab
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| : Fische auch, das ist die Norm
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| : das einz'ge, was er wirklich schluckt
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| : ist Mexaform
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| :
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| : Ein Schweizer im Ausland
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| : von Elend erfüllt
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| : ein Schweizer im Ausland
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| : ein trauriges Bild!
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| :
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| : Wenn jemand hustet
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| : schöpft er Verdacht
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| : er zuckt zusammen
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| : wenn jemand lacht
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| : denn er fürchtet schon
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| : beim leisesten Hauch
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| : man lache über ihn -
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| : und das stimmt ja auch.
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| : Trinkgeld gibt er keins
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| : oder wenn, dann zuviel.
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| : Für ihn ist bei jedem Kauf
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| : Betrug im Spiel.
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| : So lebt er dahin
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| : und das grösste Glück
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| : das er kennt in der Fremde
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| : ist die Reise zurück.
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| :
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| : Ein Schweizer im Ausland
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| : wird nie richtig froh
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| : ein Schweizer im Ausland -
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| : aber die Deutschen sind genau so!
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| [[Kategorie:Franz Hohler - Texte]]
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